05 अगस्त 2010

माओवाद पर सरकार और मिडिया दोनों गम्भीर नहीं....

स्वामी अग्निवेश की इस स्वीकारोक्ती के बाद कि ` सरकार ने उनके साथ धोखा किया ´ माओवाद पर सरकार की गम्भीरता दशाZती है और इस खबर पर मिडिया की चुप्पी उसकी गम्भीरता पर प्रश्नचिन्ह लगाते है। एक तरफ जहां माओवादी पूरे देश को लाल कोरीडोर में तब्दील करने के लिए लाल सलाम का नारा बुलन्द कर रहें है तो दूसरी तरफ  माओवादी नेता आजाद और पत्रकार हेमचन्द्र की वैसे समय में एनकांउटर जब स्वामी अग्निवेश की अगुआई में शान्ति वार्ता की पहल हो रही थी कई सवाल खड़े कर रहें है। पहला सवाल तो सरकार की गम्भीरता पर ही उठ रहें हैं। माओवाद और माओवादी जिस बुनियाद पर लाल फसल बोते और काटते है यह उसी बुनियाद को मजबूत करने वाला कदम है। केन्द्र सरकार में बैठे गृहमन्त्री चिदंबरम की घुरकी को माओवादी भी समझ गए और सेना भी। 
एक बात से तो कई सहमत है कि हथियार के बल पर माओवाद का सफाया नहीं किया जा सकता क्योंकि माओवादियों का चाहे जितना भी पतन हुआ हो और दिल्ली में बैठे विश्लेषक चाहे जो विश्लेषण करे पर सच्चाई यही है कि माओवादी बैंपायर की तरह अपनी संख्या को बढ़ाते जा रहें है और इसकी सबसे बड़ी बजह अशिक्षा, जागरूकता का अभाव और गरीबी है। सरकार की योजनाऐं आज भी ढोल का पोल बनी हुई है। 

माओवाद ठीक उस बुखार के मरीज की तरह है जो किसी बिमारी की सूचना है न की स्वंय एक बिमारी और बुखार के मरीज को यदि बर्फ से नहला कर ठंढ़ा कर दिया जाए तो वह मर जाएगा, ठीक नहीं होगा। हमारी सरकार और हमारे विश्लेषक भी यही करने पर तुले है और उनके साथ खड़ी है हमारी मिडिया।
मिडिया हाउस में काम करने के अनुभव से यह कह सकता हूं कि कहीं भी हुए नक्सली हमले पर चैनल चिल्लाने लगते है और अखबारों का पन्ना भी लाल हो जातें है। रिपोर्टरों को पहले से ही हिदायत रहती है कि कुछ भी हो नक्सली घटना का कवरेज छूटना नहीं चाहिए। परिणामत: समाचार की आपाधापी में गम्भीर नक्सली समस्या पर उथली खबर चल कर खत्म हो जाती है और इस सब में दबकर रह जाती है नक्सलियों की आवाज। मैं यहां साफ कर दूं कि नक्सली से मेरा मतलब उन नक्सली नेताओं से नहीं जिनका मकसद माओवाद से भटक कर पूंजीवाद की ओर चला गया है। मेरा मतलब उस आदमी से है जो किसी न किसी मजबूरी में या फिर बहकाबे में हथियार उठा कर अपने ही देश का लहू बहा रहा है।

 सवाल है कि हमारे मिडिया के पण्डित आखिर क्यों नहीं स्वामी अग्निवेश के सवाल का जबाब तलाशते है। क्यों नहीं राहुल महाजन की जगह नक्सली बने भूखे आदमी के दर्द को जगह मिलती है। सवाल यह भी है कि आखिर क्यों मिडिया नक्सलवाद पर पुलिस और सरकार की हां में हां मिलती है और अपनी तहकीकात को खत्म कर देती है। सवाल यह भी है कि नक्सलबाद पर सरकार और समाज के पैरोकार गम्भीर नहीं हुए तब जबाब नक्सलवादी दे ही रहें है और देते रहेगें................

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